वेदों की दृष्टि में दया का महत्व: क्यों हैं हिंदू दयालु? | अनिरुद्धाचार्य जी

दया और करुणा सनातन धर्म का मूल आधार मानी जाती हैं। वेद और पुराणों में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि “दया ही धर्म है।” तुलसीदास ने भी कहा है, “दया ना छोड़िए जब तक घट में प्राण।” दया का होना व्यक्ति को हिंदू विचारधारा के करीब लाता है, जबकि इसका अभाव उसे हिंसा की ओर धकेलता है। जिनके हृदय में दया जीवित थी, वे मिठाई बांटकर, दीप जलाकर त्यौहार मनाते रहे, जबकि दया की मृत्यु ने हत्या और खून बहाने की प्रथा को जन्म दिया।

सनातन धर्म में प्रत्येक जीव को पूजनीय माना गया है। गाय, गंगा, तुलसी, पर्वत और सूर्य की पूजा का मूल आधार है – दया। हिंदू त्यौहारों का स्वरूप भी इसी पर आधारित है, जहां होली में रंग, दिवाली में दीपक, और किसी भी त्यौहार में मिठाई के वितरण के पीछे दया और सह-अस्तित्व की भावना रहती है।

दूसरी ओर, जब दया की कमी होती है, तो हिंसा और हत्याएं स्वाभाविक रूप से बढ़ती हैं। बकरों की सामूहिक हत्या और खून बहाना त्यौहार मनाने का प्रतीक बन जाता है। यह हिंसा और निर्दयता इस बात की गवाही देती हैं कि समाज से दया लुप्त हो चुकी है।

सनातन धर्म में दया और धर्म का अटूट संबंध है, और इसे बनाए रखने के लिए हमें अपनी संस्कृति, धर्म, और विचारधारा की रक्षा करनी चाहिए। धर्म का प्रचार करना, लोगों को जागरूक करना और अपने मूल्यों को बनाए रखना प्रत्येक सनातनी का कर्तव्य है।

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